Sunday, December 2, 2007

कोश, समांतर कोश और अनुवाद... 1

हाल ही मैं ने भारतीय अनुवाद परिषद की डा. गार्गी गुप्त व्याख्यान माला के अंतर्गत तीसरा व्याख्यान दिया. उस का पूरा (अविकल) मूल मैं यहाँ नीचे दे रहा हूँ. साथ ही उस के अंत में संलग्न हैं द पेंगुइन इंग्लिश-हिंदी/हिंदी-इंग्लिश थिसारस ऐंड डिक्शनरी के बारे में आधारिक जानकारी, हमारी पुस्तकों की सूची, तथा कुछ चित्र.

आप सब से निवेदन है कि इस पूरा पढ़ें, मित्रों को यह लिंक भेजें. चाहे तो कापी कर के अपने कंप्यूटर पर स्वतंत्र फ़ाइल के रूम में सेव कर लें.

साभार.

अरविंद कुमार

उस अवसर पर सब से पहले डाक्टर पूरण चंद्र टंडन ने परिषद का परिचय दिया, परिषद की ओर से श्रीमती कुसुम को और मुझे पुष्पगुच्छ औऱ मुजे स्मृति चिह्न दिए गए.

बाद में डाक्टर विजय कुमार मल्होत्रा ने मेरे तथा हमारे नए कोश द पेंगुइन इंग्लिश-हिंदी/हिंदी-इंग्लिश थिसारस ऐंड डिक्शनरी के बारे में जानकारी दी. फिर मैं ने व्याख्यान दिया.

भारतीय अनुवाद परिषद

डा. गार्गी गुप्त स्मृति व्याख्यानमाला: 3

इंडिया इंटरनेशनल सैंटर, नई दिल्ली, 27 नवंबर 2007

अरविंद कुमार

कोश, समांतर कोश और अनुवाद...

सब से पहले मैं अपने घनिष्ठ मित्र दंपति सुलेख और गार्गी को याद करना चाहता हूँ. सुलेख चंद गुप्ता प्रसिद्ध अर्थशास्त्री थे, दसियों साल विदेशों में रह कर भी किसी भी प्रकार के अहंकार से हीन पूरी तरह भारतीय और आम आदमी के हितों के समर्थक रहे. उन के जैसे पढ़ाकू मैं ने कम देखे हैं. गार्गी गुप्ता विदुषी थीं, उत्साही थीं, बहुभाषाविद थीं, और हिंदी में अनुवाद आंदोलन की नेता थीं. वह भारतीय अनुवाद परिषद की जान थीं. उन का सोचना विचारना, रहना ओढ़ना बिछोना अनुवाद ही था. उन की देखरेख में भारतीय अनुवाद परिषद संसार की प्रमुख संस्थाओं में बनी. मेरे लिए यह हर्ष की बात है कि गार्गी और सुलेख के जाने के बाद परिषद को उन की उत्साही पुत्रवधु नीता गुप्ता का पूरा समर्थन मिल रहा है. डाक्टर पूरणचंद टंडन और श्रीमती संतोष वर्मा कई वर्षों से इस की बाग़डोर सँभाले हैं.

आगे बढ़ने से पहले मैं भारतीय अनुवाद परिषद को धन्यवाद देता हूँ कि गार्गी की याद में यह व्याख्यान माला स्थापित की और जारी रखी है. मेरे लिए यह हर्ष और गौरव का विषय है कि इस बार मुझे यहाँ बोलने का सुअवसर दिया है.

मुझे विषय दिया गया है-कोश, समांतर कोश और अनुवाद...

शब्द और भाषा...

मैं बात शुरू करता हूँ शब्द से, भाषा से. किस प्रकार शब्द और भाषा सामाजिक उपकरण हैं और किस तरह अनुवाद भाषाओं और संस्कृतियों के बीच संगम का काम करता है. मानव को आगे बढ़ाता है. मैं अनुवाद में मेरे सामने आने वाली कठिनाइयों की बात भी मैं करूँगा...

कहते हैं कि बृहस्पति जैसा गुरु पा कर भी देवराज इंद्र हज़ारों वर्ष तक शब्द की थाह नहीं पा सके. फिर कहाँ देवगुरु बृहस्पति और कहाँ मैं अज्ञानी! आप जैसे ज्ञानियों के बीच मैं आधा ज्ञानी हूँ. मुझ जैसे लोगों का ज्ञान संस्कृत में चंचु प्रवेश कहा जाता है. इधर उधर चोंच घुसा कर जो पाया, उसी को ज्ञान समझ लेना. जो कुछ भी मैं ने पिछले तीस बत्तीस बरसों से शब्दों को संकलित करते करते इधर उधर चोंच मार कर, पढ़ कर, सीखा है, वही मैं अपने शब्दों में कहने की आधी अधूरी कोशिश कर रहा हूँ...

हम शब्दों का, शब्दों के माध्यम से वाक्यों का अनुवाद करते हैं. जो स्रोत भाषा मे किसी ने लिखा है वह हम अपने पाठ को लक्ष्य भाषा में बताते हैं. अनुवाद में भाषा और शब्द सर्वोपरि हैं.

अनुवाद भाषाओं के परस्पर वार्तालाप का दूसरा नाम है. अनुवाद भाषाओं और संस्कृतियों के बीच संगम का काम करता है. मानव को आगे बढ़ाता है. अनुवाद से संस्कृतियाँ समृद्ध होती है. मानव एक सूत्र में बँधते जाते हैं.

शब्द भाषा की सर्वाधिक महत्वपूर्ण और अपरिहार्य कड़ी है. हमारे संदर्भ में शब्द का केवल एक अर्थ है... एकल, स्वतंत्र, सार्थक ध्वनि. वह ध्वनि जो एक से दूसरे तक मनोभाव पहुँचाती है. संसार की सभी संस्कृतियों में इस सार्थक ध्वनि को भारी महत्व दिया गया है. संस्कृत ने शब्द को ब्रह्म का दर्जा दिया था. शब्द जो स्वयं ईश्वर के बराबर है, जो फैलता है, विश्व को व्याप लेता है. ग्रीक और लैटिन सभ्यताओं में शब्द की, लोगोस logos की, महिमा का गुणगान विस्तार से है. ईसाइयत में शब्द या लोगोस को कारयित्री प्रतिभा (क्रीएटिव जीनियस creative genius) माना गया है. कहा गया है कि यह ईसा मसीह में परिलक्षित ईश्वर की रचनात्मकता ही है.

कारण यह कि भाषा आज के मानव, हम मनु मानव या होमो सैपिएंस, के मन मस्तिष्क का, यहाँ तक कि अस्तित्व का, अंतरंग अंग हैभाषा सीखने की क्षमता, भाषा के द्वारा कुछ कहने की शक्ति. इस शक्ति के उदय ने ही मानव को संगठन की सहज सुलभ क्षमता प्रदान की और आदमी को प्रकृति पर राज्य कर पाने में सक्षम बनाया. इसी के दम पर सारा ज्ञान और विज्ञान पनपा है. शब्दों और वाक्यों से बनी भाषा के बिना समाज का व्यापार नहीं चल सकता. आदमी अनपढ़ हो, विद्वान हो, वक्ता हो, लेखक हो, बच्चा हो, बूढ़ा हो... कुछ कहना है तो उसे शब्द चाहिए, भाषा चाहिए. वह बड़बड़ाता भी है तो शब्दों में, भाषा में. गूँगे लोग अपंग माने जाते हैं. धरती के बाहर अगर कभी कोई बुद्धियुक्त जीव जाति पाई गई, तो मुझे पूरा विश्वास है कि उस में संप्रेषण का रूप कोई भी हो, उस के मूल में किसी न किसी प्रकार की व्याकृता भाषा ज़रूर होगी और शब्द ज़रूर होगा.

शब्द के बिना भाषा की कल्पना करना निरर्थक है. शब्द हमारे मन के अमूर्त्त भाव, इच्छा, आदेश, कल्पना का वाचिक प्रतीक, ध्वन्यात्मक प्रतीक है. शब्द जब मौखिक था, तो मात्र हवा था. उस का अस्तित्व क्षणिक था. वह क्षणभंगुर था. लिखित हो कर वह छवि बन गया, चित्र बन गया, मूर्ति बन गया.दूसरों से कुछ कहने का माध्यम, भाव के संप्रेषण का वाचिक साधन. शब्द का मूल अर्थ है ध्वनि. शब्द जब मौखिक था, तो मात्र हवा था. उस का अस्तित्व क्षणिक था. वह क्षणभंगुर था. शब्द को लंबा जीवन देने के लिए कंठस्थ कर के, याद कर के, वेदों को अमर रखने की कोशिश की गई थी. वेदों को कंठस्थ करने वाले वेदी, द्विवेदी, त्रिवेदी और चतुर्वेदी ब्राह्मणों की पूरी जातियाँ बन गईं जो अपना अपना वेद पीढ़ी दर पीढ़ी जीवित रखती थीं. इसी प्रकार क़ुरान को याद रखने वाले हाफ़िज कहलाते थे.

शब्द को याददाश्त की सीमाओं से बाहर निकाल कर सर्वव्यापक करने के लिए, लंबा जीवन देने के लिए, लिपियाँ बनीं. लिपियों में अंकित हो कर शब्द साकार मूर्ति बन गया. वह ताड़पत्रों पर, पत्थरों पर, अंकित किया जाने लगा. काग़ज़ आया तो शब्द लिखना और भी आसान, सस्ता हो कर टिकाऊ हो गया. लिपि ने शब्द को स्थायित्व दिया. काल और देश की सीमाओं से बाहर निकल कर व्यापक हो गया. अब वह एक से दूसरे देश और एक से दूसरी पीढ़ी तक आसानी से जा सकता था. मुद्रण कला के आविष्कार से मानव के ज्ञान में विस्तार के महाद्वार खुल गए. और अब इंटरनैट सूचना का महापथ और ज्ञान विज्ञान का अप्रतिम भंडार बन गया है. बिजली की गति से हम अपनी बात सात समंदर पार तत्काल पहुँचाते हैं.

हमारा संबंध केवल वाचिक और लिखित शब्द मात्र से हैलिपि कोई भी हो, भाषा कोई भी हो, हिंदी हो, अँगरेजी हो, या चीनी... एक लिपि में कई भाषाएँ लिखी जा सकती हैं, जैसे देवनागरी में हिंदी और मराठी, और नेपाली... हिंदी के लिए मुंडी जैसी पुरानी कई लिपियाँ थीं... हिंदी के कई काव्य ग्रंथ उर्दू लिपि में लिखे गए. आज उर्दू कविताएँ देवनागरी में छपती और ख़ूब बिकती हैं. रोमन लिपि में यूरोप की अधिकांश भाषाएँ लिखी जाती हैं. रोमन में हिंदी भी लिखी जाती है. ब्रिटिश काल में सैनिकों को रोमन हिंदी सिखाई जाती थी. आज इंटरनैट पर कई लोग हिंदी पत्रव्यवहार रोमन लिपि में ही करते हैं. रोमन में आजकल संसार की कई अन्य भाषाएँ लिखने के कई विकल्प मिलते हैं...

चीनी जापानी या प्राचीन मिस्री भाषाएँ चित्रों में लिखी जाती हैं. चित्रों में लिखी लिपि का आधुनिकतम रूप शार्टहैंड कहा जा सकता है. चित्र लिपियो में अक्षरों का होना आवश्यक नहीं है. हाँ, जो बात सब भाषाओं और लिपियों में कामन है, एक सी है, समान है, वह है शब्द. हर भाषा शब्दों में बात करती है. शब्द लिखती. सुनती और पढ़ती है.

हर भाषा का अपना एक कोड होता है. इसी लिए संस्कृत में भाषा को व्याकृता वाणी कहा गया है, नियमों से बनी और नियमों से बँधी सुव्यवस्थित क्रमबद्ध बोली. शुरू में यह कोड लिखा नहीं गया था. सब मन ही मन यह कोड जानते थे. पढ़ें या नहीं फिर भी हम सब यह कोड जानते हैं. यह कोड किसी भी समाज के सदस्यों के बीच एक तरह का अलिखित अनुबंध है. लिखना पढ़ना सीखने से पहले बच्चा यह कोड समझ चुका होता है.

भाषा और कोड निरंतर नवीकरण की प्रक्रिया में रहते है...

पहले आम आदमी भाषा बनाता है, बाद में विद्वान मग़ज़ खपा कर उस के कोड बनाते हैं. फिर आम आदमी उन कोडों को तोड़ता हुआ नए शब्द बनाता रहता है, शब्दों का रूप और अर्थ बदलता रहता है. कोडों की सीमाएँ लाँघती, बाढ़ में आई नदी की तरह किनारे तोड़ती भाषाएँ नई धाराएँ बना लेती हैं. पहले विद्वान माथा पीटते हैं, इस प्रवृत्ति को उच्छृंखलता कहते हैं, भाषा का पतन कहते हैं, फिर बाद में नए कोड बनाने में जुट जाते हैं...

भाषाओं को विकारों से बचाने के लिए विद्वान व्याकरण बनाते हैं, शब्दकोश बनाते हैं. जानसन और वैब्स्टर जैसे कोशकारों ने लिखा है कि उन का उद्देश्य था इंग्लिश और अमरीकन इंग्लिश को स्थायी रूप देना, उसे बिगड़ने से बचाना. उन के कोश आधुनिक संसार के मानक कोश बने. लेकिन हुआ क्या? उन के देखते देखते भाषा बदल गई, नए शब्द आ गए. फिर कोशों के नए संस्करण बनने लगे. आजकल अँगरेजी के कोशों में हर साल हज़ारों नए शब्द डाले जाते हैं.

यही तो जीवित भाषाओं का गुण है... ख़ुशी की बात है कि हमारी हिंदी भी नए शब्द बनाने और ज़रूरी शब्द बाहर से लेने में किसी से पीछे नहीं रही है. अंतर केवल इतना है कि हमारे यहाँ अभी तक कोशों में नए शब्द हर साल डालने के प्रथा नहीं चली है.

(क्रमशः)

3 comments:

अनामदास said...

अरविंद जी
प्रणाम. आपका पुराना शिष्य हूँ, आपसे एक बार मिलने का अवसर भी मिला है, जब नेशनल बुक ट्रस्ट ने हिंदी की पहली थिसारस का प्रकाशन किया था, दस साल से अधिक हो गए अब तो. आपने बया में मेरे ब्लॉग की चर्चा करके मेरा हौसला बढ़ाया उसके लिए बहुत आभारी हूँ. दिल्ली आया तो आपसे मिलने का प्रयास करूँगा. यह देखकर बहुत प्रसन्नता हो रही है कि आप इतनी सक्रियता से गहरे, सार्थक और उपयोगी कार्य में लगे हुए हैं.
नमस्कार
मेरा ईमेल का पता है--anamdasblogger@gmail.com

Pratyaksha said...

आगे भी आपको पढ़ने का इंतज़ार रहेगा ।

हरिराम said...

अत्यन्त उपयोगी आलेख।