Sunday, December 2, 2007

कोश, समांतर कोश और अनुवाद...3


शब्द संकलन
शब्दों के संकलन और कोश निर्माण की बात करें तो—


सभ्यता और संस्कृति के उदय से ही आदमी जान गया था कि भाव के सही संप्रेषण के लिए सही अभिव्यक्ति आवश्यक है. सही अभिव्यक्ति के लिए सही शब्द का चयन आवश्यक है. सही शब्द के चयन के लिए शब्दों के संकलन आवश्यक हैं. शब्दों और भाषा के मानकीकरण की आवश्यकता समझ कर आरंभिक लिपियों के उदय से बहुत पहले ही आदमी ने शब्दों का लेखाजोखा रखना शुरू कर दिया था. इस के लिए उस ने कोश बनाना शुरू किया. कोश मेंबने. हमारी यह शानदार परंपरा वेदों जितनी—कम से कम पाँच हज़ार साल—पुरानी है. प्रजापति कश्यप का निघंटु संसार का प्राचीनतम शब्द संकलन है. इस में 18 सौ वैदिक शब्दों को इकट्ठा किया गया है. निघंटु पर महर्षि यास्क की व्याख्या निरुक्त संसार का पहला शब्दार्थ कोश और विश्वकोश यानी ऐनसाइक्लोपीडिया है! इस महान शृंखला की सशक्त कड़ी है छठी या सातवीं सदी में लिखा अमर सिंह कृत नामलिंगानुशासन या त्रिकांड जिसे सारा संसार अमर कोश के नाम से जानता है.

भारत के बाहर संसार में शब्द संकलन का एक प्राचीन प्रयास अक्कादियाई संस्कृति की शब्द सूची है. यह शायद ईसा पूर्व सातवीं सदी की रचना है. ईसा से तीसरी सदी पहले की चीनी भाषा का कोश है ईर्या.

आधुनिक कोशों की नीवँ डाली इंग्लैंड में 1755 में सैमुएल जानसन ने. उन की डिक्शनरी आफ़ इंग्लिश लैंग्वेज (Samuel Johnson's Dictionary of the English Language) ने कोशकारिता को नए आयाम दिए. इस में परिभाषाएँ भी दी गई थीं.

असली आधुनिक कोश आया इक्यावन साल बाद 1806. अमरीका में नोहा वैब्स्टर की ए कंपैंडियस डिक्शनरी आफ़ इंग्लिश लैंग्वेज (Noah Webster's A Compendious Dictionary of the English Language) प्रकाशित हुई. इस ने जो स्तर स्थापित किया वह पहले कभी नहीं हुआ था. साहित्यिक शब्दावली के साथ साथ कला और विज्ञान क्षेत्रों को स्थान दिया गया था. कोश को सफल होना ही था, हुआ. वैब्स्टर के बाद अँगरेजी कोशों के रिवीज़न और नए कोशों के प्रकाशन का व्यवसाय तेज़ी से बढ़ने लगा. आज छोटे बड़े हर शहर में, विदेशों में तो हर गाँव में, किताबों की दुकानें हैं. हर दुकान पर कई कोश मिलते हैं. हर साल कोशों में नए शब्द शामिल किए जाते हैं.

अपने कोशों के लिए वैब्स्टर ने 20 भाषाएँ सीखीं ताकि वह अँगरेजी शब्दों के उद्गम तक जा सकें. आप को जान कर आश्चर्य होगा और प्रसन्नता भी कि उन भाषाओं में एक संस्कृत भी थी. तभी उस कोश में अनेक अँगरेजी शब्दों का संस्कृत उद्गम तक वर्णित है. मैं पिछले तीस सालों से वैब्स्टर कोश का न्यू कालिजिएट संस्करण काम में ला रहा हूँ. मुझे इस में मेरे काम की हर ज़रूरी सामग्री मिल जाती है. यहाँ तक कि भारोपीय मूल वाले अँगरेजी शब्दों के संस्कृत स्रोत भी. समांतर कोश के द्विभाषी संस्करण द पेंगुइन इग्लिश-हिंदी/हिंदी-इंग्लिश थिसारस ऐंड डिक्शनरी पर काम करते करते कई बार तो अनपेक्षित जगहों पर भी शब्दों के संस्कृत मूल मिल गए. पता चला कि ईक्विवैलेंट, बाईवैलेंट जैसे शब्दों के मूल में है संस्कृत का वलयन. एअर यानी हवा का मूल संस्कृत ईर में है, सोनिक के मूल में हैं संस्कृत के स्वन और स्वानिक. कई बार मैं सोचता था—काश, डाक्टर रघुवीर की टीम ने और बाद में तकनीकी शब्दावली बनाने वाले सरकारी संस्थानों ने ये संस्कृत मूल जानने की कोशिश की होती! उन के बनाए शब्दों को एक भारतीय आधार मिल जाता और लोकप्रियता सहज हो जाती. ख़ैर, उन लोगों ने जो किया वह भी भागीरथ प्रयास था...

कोश कई तरह के होते हैं. किसी भाषा के एकल कोश, जैसे ऊपर लिखे अँगरेजी कोश या हिंदी से हिंदी के कोश. इन में एक भाषा के शब्दों के अर्थ उसी भाषा में समझाए जाते हैं. कोश द्विभाषी भी होते हैं. जैसे संस्कृत से अँगरेजी के कोश. सन 1872 में छपी सर मोनिअर मोनिअर-विलियम्स की (बारीक़ टाइप में 8.5"x11.75" आकार के तीन कालम वाले एक हज़ार तीन सौ तैंतीस पृष्ठों की अद्वितीय संस्कृत-इंग्लिश डिक्शनरी इस का अनुपम उदाहरण है. या आजकल बाज़ार में मिलने वाले ढेर सारे अँगेरेजी-हिंदी कोश और हिंदी-अँगरेजी कोश. इन का उद्देश्य होता है एक भाषा जानने वाले को दूसरी भाषा के शब्दों का ज्ञान देना. जिस को जिस भाषा में पारंगत होना होता है या उस के शब्दों को समझने की ज़रूरत होती है, वह उसी भाषा के कोशों का उपयोग करता है.


कोशों के पीछे सामाजिक और राजनीतिक उद्देश्य भी होते हैं.

मोनिअर-विलियम्स के ज़माने में अँगरेज भारत पर राज करने के लिए हमारी संस्कृति और भाषाओं को पूरी तरह समझना चाहते थे, इस लिए उन्हों ने ऐसे कई कोश बनवाए. आज हम अँगरेजी सीख कर सारे संसार का ज्ञान पाना चाहते हैं तो हम अँगरेजी से हिंदी के कोश बना रहे हैं. हमारे समांतर कोश और उस के बाद के हमारे ही अन्य कोश भी हमारे दैश की इसी इच्छा आकांक्षा के प्रतीक हैं, प्रयास हैं.

(क्रमशः)

8 comments:

अनुनाद सिंह said...

अरविन्द कुमार जी,

आपका हिन्दी चिट्ठाजगत में अभिनन्दन है!

जिस प्रकार आपके महान योगदान से हिन्दी एक नये मुकाम पर पहुँची, उसी प्रकार हिन्दी चिट्ठाकारी में आपका पदार्पण भी हिन्दी को अन्तरजाल पर एक नयी उंचाई पर ले जायेगा।

आपका यह लेख भी बहुत ज्ञानवर्धक है।

Unknown said...

अभी अभी संशयात्‍मा पर आपका कमेंट देखा . मेरा इमेल का पता है pramodrnjn@gmail.com
या इस पर भी भेज सकते हैं janvikalp@gmail.com
कृपया पावती दे दें ताकि निश्चिंत हो सकूं .
लेख की प्रतीक्षा कर रहा हूं - प्रमोद रंजन

अनुनाद सिंह said...

आदरणीय अरविन्द जी,

इस टिप्पणी के माध्यम से आपसे दो निवेदन करना चाहता हूँ:

१) मैने आपके नाम से हिन्दी विकिपेडिया पर एक लेख आरम्भ किया है। यदि आप इसमें और जानकारी और सामग्री डालकर इसे पूर्णता प्रदान करें तो उत्तम हो। विकिपीडिया का यह पेज यहाँ है:

http://hi.wikipedia.org/wiki/अरविन्द_कुमार


२) कुछ उत्साही हिन्दी-प्रेमियों ने 'वैज्ञानिक एवं तकनीकी हिन्दी' नामक एक चर्चा समूह बनाया है। आपकी विशेषज्ञता को देखते हुए आपसे निवेदन करूँगा कि आप इस समूह के सदस्य बनें और चर्चाओं में भाग लेकर अपने अमूल्य ज्ञान से अन्य सदस्यों को लाभान्वित करें।

Scientific and Technical Hindi (वैज्ञानिक तथा तकनीकी हिन्दी)
http://groups.google.com/group/technical-hindi?lnk=li

अजित वडनेरकर said...

बहुत ज्ञानवर्धक लगा आपका लेख।
अगली कड़ियों की प्रतीक्षा है।
उम्मीद है मेरा शब्दों का सफर http://shabdavali.blogspot.com/ आपकी ज़ेरे-निग़ाह होगा।

Sameer Rawal said...

अरविंद कुमार जी,

आपको थिसारस के प्रकाशन की बहुत-बहुत बधाई! इस ख़बर को सुनकर मन प्रसन्न हो गया। आपके विचारों को पढ़कर और भी अच्छा लगा, व जिस ज्ञान का दरिया आपने यहाँ बहाया है वह तो अद्भुत है।

मैं हिस्पानी संस्कृति व भाषायों का अध्ययन करता हूँ, बार्सेलोना, स्पेन में व यहाँ कुछ समय से हिंदी भी पढ़ा रहा हूँ, विश्वविद्यालय में व एशिया भवन में। अनुवादन भी करता रहता हूँ, हिंदी, अंग्रेज़ी, स्पेनी व कातालान भाषायों के बीच।

अभी तो यही इच्छा है कि आपसे संपर्क बना रहे, ताकि आपकी सोच का सदुपयोग किया जा सके। अतः यह ब्लॉग पढ़ता रहूँगा व अगर कुछ कहना होगा तो ज़रूर ही लिखूंगा।

सादर,



समीर रावल

सोनू said...

क्या आपके "अंग्रेज़ी" शब्द के हिज्जे ठीक हैं?

जितनी जानकारी मुझे है उसके मुताबिक, चन्द्रबिंदु की आवाज़ नाक से निकाली जाती है। सो "अँग्रेज़ी" ग़लत है। बांग्ला को आपने बाँगला लिखा है। कहाँ सोच रहा था आपसे कुछ सवाल पूछूँगा कहाँ आपसे बहस करने जैसी बात हो गई। मैं आपसे कम-से-कम चालीस-पैंतालीस साल छोटा तो छोटा हूँ ही, तो डाँटिएगा मत। बिंदु के बारे में एक नियम पता है। सिर्फ़ वो बता रहा हूँ, अब यह ग़लत है या सही यह आप बताइए।

अगर बिंदु के बाद "" से "" तक का कोई अक्षर आता, तो वो अक्षर जिस वर्ग का है उस वर्ग का आख़िरी अक्षर के अर्द्धरूप को बिंदु से बदला जा सकता है। जैसे बांग्ला। यहाँ पर बिंदु के बाद ग आ रहा है जो कवर्ग का है, इस वर्ग का आख़िरी अक्षर ङ है, सो इसे बाङ्गला बोला जाएगा। (आधे ङ को यूनिकोड में जैसा दिखाया जाता है वैसा मैंने छपाई में कभी नहीं देखा। संस्कृत के अलावा आधे ङ का इस्तेमाल न के बराबर देखा है।) संस्कृत में पंचमी को पञ्चमी लिखा जाता है। मैं ञ को उच्चारना नहीं जानता। इसे न ही बोलता हूँ। भंडार, ठंडा को भण्डार और ठण्डा भी लिखा जाता है। बंदर बराबर बन्दरचंपा बराबर चम्पा। ऊष्म और अंतस्थ वर्ण अगर बिंदु के बाद आएँ तो उनके बारे में मैंने नहीं पढ़ा। ऐसे में ज़्यादातर बिंदु का मतलब न् ही देखा है। बिंदु अख़ीर में आए तो? इसके बारे में अभी बताता हूँ।

अब चंद्रबिंदु के बारे में। इसकी आवाज़ नाक से निकाली जाती है। मैं यह बता रहा हूँ कि बिंदु कब चंद्रबिंदु की जगह ले लेता है। 1. जब चंद्रबिंदु आख़िर में हो। जैसे यहाँ को यहां भी लिखा जा सकता है। कहानियाँ को कहानियां। (शायद यह नियम बिल्कुल बकवास है, लिखा जा सकता है की जगह लिखा जाता है लिखता तो कोई बात होती।) 2. यह सबसे मज़ेदार है। चंद्रबिंदु सिर्फ़ उसी अक्षर पर इस्तेमाल होता जिस पर छोटे या बड़े आ या ऊ की मात्रा हो। इस नियम की मुनासबत का मेरा तुक्का यह है कि ई ए और ओ की मात्राओं के बाद चंद्रबिंदु लिखा जाए तो गड्डमड्ड हो जाएगी मतलब ज़्यादा जगह चाहिए होगी। सो मैं को कभी भी मैँ नहीं लिखा जाता और यहीं (जो कि यहाँ से बना है) में चंद्रबिंदु इस्तेमाल नहीं होता। और तो और जहाँ यहाँ और यहां दोनों मान्य हैं वहाँ यहीँ तो कहीं देखा ही नहीं।

मैं यह ग़लती बहुत सारी जगहों पर देखता हूँ कि जहाँ बिंदु की आवाज़ आधे ङ या न होती है, उस जगह चंद्रबिंदु का इस्तेमाल किया गया होता है, सबसे आम उदाहरण है चाँद, अब चांद में चंद्रबिंदु नहीं आता तो नहीं आता। बिंदु चंद्रबिंदु की जगह ले सकता है मगर इसका उल्टा नहीं होता।

Mahesh Prakash Purohit said...

Respected Sir,
Thanks for encouragement.
I worte my blog only for personal satisfaction but your precious comment has motivated me to write more. I do not know how to write comment in hindi, thats why I am writing in English here. I was just copy pasting the poems of great writers, but wish to write something on my own. Thanks a lot for the inspiiration.
Regards
Mahesh Prakash Purohit

अविनाश वाचस्पति said...

आप जो करेंगे वो सीधा डायरेक्‍ट शिखर पर ही पहुंचेगा। बधाई।